Monday, August 24, 2009

कंक्रीट के जंगल


जल रहा है शहर
आज अपनो से
लोगो ने जला डाले
अपने अपने आँगन

जहाँ कभी आँगन मे गुजती थी
चिडियों का कलरव
आज गूंजती है
केवल सुनी हवाएं

कभी आँगन मे पड़ते थे झूले
झूलो पर चहचहाती हँसी
आज गूंजती है
सुनी आवाजे

जल रहा है शहर
आज अपनो से
लोगो ने जला डाले
अपने अपने आँगन

12 comments:

  1. जल रहा है शहर
    आज अपनो से
    लोगो ने जला डाले
    अपने अपने आँगन
    बहुत सुन्दर ये तो गागर मे सागर भर दिया गहरे भाव लिये सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई

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  2. atisundar rachana .......aaj aag hi aag lagi huee hai sab jagah......sundar

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  3. पहले सोते थे आंगन में
    अब नहीं रहे वे आंगन

    सो जाते थे सड़कों पर भी
    चारपाई बिछाकर
    अब वे सड़कें भी कहां रहीं
    गाडि़यों के लिए भी कम पड़ रहीं

    चिडि़यां जो आती थीं शोर मचाती
    अब नजर नहीं आती हैं

    इंसान प्रगति की ओर बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

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  4. बहुत गहरी बात कही!

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  5. धीरज जी आपने मन की बात कह दी. आज सुबह से ये बात मन में बार-बार आ रही है कि लगभग सन 80 के 84 के बाद हमने अपनी जमीन, हवा, पानी और ईमान सब दूषित कर लिया. आपने बडे सलीके से कहा है. बधाई.

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  6. दृष्टि पैनी हो रही है भाई ! और प्रासंगिक भी । बेहतर ।

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  7. बड़े ही मार्मिक भावों को उकेरा है आपने। सच कहूं ऐसी अपेक्षा भी थी।

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  8. सभ्यताएं बदलतीं हैं-बंधु
    और उन्हें बदलते वक्त के साथ स्वीकार करना पडता है
    एक दशक पहले तक
    कोई ऐसा आंगन नहीं था
    जिसमें ४-६ बच्चे नहीं खेलते थे
    पर अब आंगन की सभ्यता समाप्त हो गयी है बन्धु
    जनसंख्या वॄध्दि,सामाजिक,पारिवारिक विलगाव,मूल्यों में बद्लाव
    आंगन समाप्त होनें के कारण बनें हैं

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  9. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति । हर शहर के साथ इंसानियत भी आंसूं बहा रही है।

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  10. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति के साथ आपने बिल्कुल सच्चाई का ज़िक्र किया है इस रचना में! सही में आजकल तो चारों तरफ़ सिर्फ़ कंक्रीट के जंगल ही दिखाई देते हैं! पेड़ पौधे काट दिए जाते हैं बढती आबादी के कारण ताकि हजारों घर और बनाये जाए और इससे सौन्दर्यता ख़राब होती जा रही है !

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